सुखी जीवन कैसे जिएं?

Happy life

hello दोस्तों आज मेरा आर्टिकल सुखी जीवन कैसे जिए ? टॉपिक पर है।मनुष्य सुखी हो दुख से दूर रहे यह चाहता तो है पर इसके लिये पूरी तरह से प्रयत्न नहीं करता और जो करता भी है तो गलत ढंग और विपरीत दिशा में करता है लिहाजा दुखी होता रहता है।

दोस्तों इस आर्टिकल में बड़े सरल और व्यवहारिक ढंग से सुखी जीवन कैसे जिएं, इस विषय पर युक्ति युक्त प्रकाश डाला गया है।

सभी लोग जानते है की हर आदमी सुख चाहता है। दुख कोई नहीं चाहता और यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि दुख जब तब बिना बुलाये आता रहता है। 

परन्तु सुख के पीछे निरन्तर भागने वालों को भी सुख के दर्शन कभी कभार ही हो पाते है और वह भी स्थायी नहीं होता। सुख आता है और भाग जाता है।
इसके कारण पर विचार करने से पता चलता है कि दुख और रोग भगवान ने हमारे लिये नहीं बनाये बल्कि यह सब हमारे दोषों और असंयम के परिणाम स्वरूप आते है।
लेकिन हम अपने अहम् की सुरक्षा में इनका कारण ईश्वर को मानते है।

विद्वानों के मतानुसार दुःखों को पाँच भागों में बांटा जा सकता है  

(1)इन्द्रियों मे थकावट, (2) दूसरा शरीर में रोग, (3) मन में चिन्ता, (4) बुद्धि में भय, (5) अहं में वियोग। अब देखना यह है कि हमारा क्या दोष है।
हमारा दोष है समाज में प्रचलित गलत मान्यताओं और धारणाओं को सही मानकर उन पर चलते जाना। यह निश्चित है की हमारी मान्यता और धारणा भ्रमक होगी। तो उसके अनुसार हमारे कर्म भी गलत होंगे जिसका नतीजा दुख होगा।

वे गलत मान्यताएं और धारणाएं क्या है? वे है चाय में चुस्ती, भोजन में शक्ति, पैसे में सुख, पुस्तकों में ज्ञान और निकट सम्बन्धियों से अपनापन मानना। अब जरा इन पर बारी बारी से विचार करें।

(1) चाय में चुस्ती का भ्रम

चाय एक प्रकार से हल्का मादक पदार्थ है जिसका प्रयोग समाज में बिना सोचें समझे पेय के रूप में अन्धाधुन्ध हो रहा है।
यहां तक कि बच्चों को पैदा होते ही चाय पिलाने लगते है यह मान कर कि यह सर्दी को दूर करती है और फुर्ती लाती है।
यह केवल भ्रम है क्योंकि दूसरे मादक पदार्थो की तरह चाय उत्तेजना जरूर लाती है पर बाद में ढीला पन आने लगता है इससे बार बार इसको पीने की इच्छा होती है।

डॉक्टरों की नवीन खोज से पता चला है कि चाय में लगभग एक दर्जन विष एक साथ रहते है जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते है।

कोई तो नींद को कम करता है, कोई भूख मारता है, कोई तेजाब यानी अम्ल पैदा करता है, कोई रक्त-चाप तो कोई नसों को ढीला करता है।
आजकल गेस्ट्रिक ट्रबल की शिकायत बहुत अधिक है। इसमें चाय की भूमिका एसिड (अम्ल) बनाने की वजह से महत्वपूर्ण है।

डॉक्टरों का कहना है कि जितना जिस व्यक्ति में तेजाब अधिक बनेगा वह उतना ही जल्दी थकेगा और जल्दी रोगी व बूढ़ा होकर जल्दी मरेगा।

पेट में और भी पदार्थ तेजाब बनाते है जैसे -मांस, मिर्चमसाला, अचार, मिल की बनी चीनी, दाले आदि। परन्तु दाले फिर भी उतना ही तेजाब बनाती है। 
जितने की हमारे शरीर को आवश्यकता है। फालतू तेजाब ही हानिकारक है। हमारा रोजाना का अनुभव है कि चाय के आदी लोग जवानी में ही थकने लगते है।
जब तक चाय में चुस्ती का भ्रम बना हुआ है तब तक हम चाय पीना कैसे बन्द कर सकते है

(2) भोजन में शक्ति का भ्रम

दूसरा भ्रम भोजन में शक्ति का है जो कि ठीक नहीं। भोजन शक्ति के लिये नहीं शरीर का निर्माण करने के लिये आवश्यक है।
यही कारण है कि अधिक खाने वाले और परिश्रम न करने वाले लोग अक्सर मोटापे के शिकार हो जाते है और कम खाने वाले दुबले हो जाते है। 
पर देखने में आता है कि मोटे शरीर के लोग अक्सर कमजोरी की शिकायत करते हैऔर दुबले पतले लोग चुस्त बने रहते है।

काम काज करने से हमारे शरीर के जितने सेल्स टूटते है उनका नवनिर्माण करने के लिये भोजन आवशयक है। इसलिए जितना किसी का अधिक परिश्रम का काम हो उतना अधिक भोजन और जितना परिश्रम कम हो उतना भोजन भी कम करना चाहिए।

दूसरी बात यह है कि भवन निर्माण के समय जैसे चूना, गारा, ईट आदि की अधिक जरूरत होती है इसी तरह शरीर का निर्माण हो रहा हो तो अधिक भोजन कि आवश्यकता होती है। 

परन्तु शरीर का पूरा निर्माण हो चुकने पर, बिना परिश्रम किये अधिक खाना रोगो को बुलावा देना है।

जिन लोगों को यह भ्रम हो की भोजन से शक्ति मिलती है उनको एक प्रयोग करके देखना चाहिए। किसी स्वस्थ्य नौजवान को उसकी मनमर्जी का पौष्टिक भोजन जितना चाहे (1 सप्ताह) खिलाते रहे और सोने को मना कर दें। 

तो आप देखेंगे कि वह व्यक्ति काम करने लायक नहीं रहेगा। अगर भोजन में शक्ति होती तो उसका शरीर ढीला नहीं पड़ता। 

शक्ति सीधी भगवान से मिलती है जब हम गहरी नींद में होते है। गहरी नींद में हमारे अहंकार का विलय होने से ईश्वर से सीधा सम्पर्क हो जाता है, हमारे शरीर की बैटरी चार्ज हो जाती है। 

हम प्रातः एकदम पूरी ताजगी लिए हुए उठते है। इसके विपरीत अगर गहरी नींद नहीं आती तो शरीर थका थका सा रहता है और काम करने को मन नहीं होता।

योगी लोग ध्यान व समाधि द्वारा अधिक शक्ति प्राप्त करते है अगर भोजन में ही शक्ति होती तो उपवास करने वाले कुछ भी न कर सकते।

मेरा अपना अनुभव है कि 10-15 दिन बिना खाए नींबू शहद, पानी या फलों पर रहा जा सकता है और रोजाना का काम भी किया जा सकता है।
इससे सिद्ध होता है कि भोजन शरीर का निर्माण तो अवश्य करता है परन्तु शक्ति भगवान की देन है। भोजन में शक्ति मानने वाले लोग प्रायः जरूरत से अधिक और श्रम से पहले खाते है जिसके कारण वे आगे रोगी होकर कष्ट भोगते है।

(3) पैसे में सुख का भ्रम

तीसरा भ्रम पैसे में सुख का है।अगर पैसे में सुख होता तो धनवान लोग दुखी नहीं होते परन्तु देखने में आया है कि जितना बड़ा धनवान उतनी बड़ी चिन्ता।
आप धन से सुख के साधन तो खरीद सकते है परन्तु सुख नहीं खरीद सकते। पैसे से स्वादिष्ट भोजन खरीदा जा सकता है परन्तु भूख नहीं।
पुस्तक खरीद सकते है परन्तु ज्ञान नहीं। टॉनिक खरीद सकते है शक्ति नहीं। औषधि खरीद सकते है परन्तु स्वास्थ्य नहीं खरीद सकते। 
जो लोग इस भ्रम में है कि पैसे में सुख है वह हर जायज नाजायज़ साधन से धन बटोरने के पीछे पड़े है। किसी संत ने कहा है की बिना बेईमानी के धन इकट्ठा नहीं होता और साथ भी नहीं जाता है।
परन्तु धन यही पड़ा रह जाता है। धनी आदमी चिंता मुक्त नहीं हो सकता।

(4) किताबी ज्ञान का भ्रम

यह चौथा भ्रम है जबकि सत्य यह है कि पुस्तकों से जानकारी तो मिलती है परन्तु ज्ञान नहीं मिलता। आपने पुस्तक में पढ़ा कि चीनी मीठी वस्तु है। 
परन्तु चीनी खाये बगैर उसकी मिठास का वास्तविक ज्ञान (अनुभव) नहीं हो सकता।  कोई व्यक्ति तैरने के बारे में कितनी ही पुस्तकें पढ़ लें परन्तु पानी में उतरे बगैर तैरना नहीं सीखा जा सकता।

योगियों के अनुसार जब विचारों का निरोध होता है तो भीतरी ज्ञान पैदा होता है जैसे कबीर, तुलसी, सूरदास कही किसी विश्वविद्यालय में पड़ने नहीं गये परन्तु उनको सब ज्ञानी मानते है। 

इतिहास हमें बताता है कि अकसर सन्त अधिक पढ़े लिखें नहीं होते थे परन्तु भीतरी ज्ञान से ओत-प्रोत होते थे जैसे गुरुनानक देव जी, कबीर दास जी ने तो कहा है कि मसि कागज से छुओ नाहीं अर्थात पढ़ाई लिखाई नहीं की।

अगर पुस्तकों में ज्ञान होता तो कॉलेजों के प्रोफेसर और अधिक पढ़े लिखें लोग सब ज्ञानी होते परन्तु ऐसा है नहीं। जिस विषय को कोई पढ़ लेता है। 

वह सैद्धांतिक रूप से उसका जानकार तो हो जाता है परन्तु व्यवहारिक रूप से उसे ज्ञानी की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

(5) अपनत्व का मोह

 पांचवां भ्रम सम्बन्धियों में अपनत्व का है। अगर माता-पिता, भाई-बहन आदि हमारे होते तो हमें छोड़कर नहीं जाते।
अपना तो वह है जो कभी पैदा नहीं होता, कभी मरता नहीं हमसे अलग नहीं होता। जो लोग केवल सम्बन्धियों को अपना मानते है। 
वे ही लोगों के मिलने और बिछुड़ने से सुखी व दुखी होते रहते है। जो केवल प्रभु को अपना सर्वस्व मान लेता है वह कभी दुखी नहीं होता।

इन दुःखों से छुटकारा कैसे पाए 

अब विचार यह करना है कि इन दुःखों से छुटकारा कैसे पाए तो पहले ये समझ लें कि दुख सदा अपने किसी न किसी दोष का ही परिणाम होता है।
अतः हमको सावधान होकर अपने दोषों को देखना चाहिए और उनसे बचना चाहिए। सन्तों ने इसके लिए निम्न लिखित पांच उपाय बताये है। 
(1) सन्तुलित आहार, (2) युक्ति युक्त उपवास, (3)विवेकपूर्ण सेवा, (4)विधिवत ध्यान और (5) प्रभु को अर्पित।दुःखों से छुटकारा तथा शाश्वत सुख प्राप्ति हेतु ‘आत्म संयम योग ‘ का उपदेश अपने प्रिय सखा अर्जुन को देते हुए, भगवन श्रीकृष्ण कहते है। 

युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।

युक्त स्वपनाव बोधस्य योगो भवति दुःखहा।।   

अर्थात यथा योग्य आहार विहार और कर्मों की चेष्टा, सोना जागना आदमी अगर साध लेता है तो उसे दुःख दूर करने वाले इस योग की प्राप्ति होती है।              

(1) सन्तुलित आहार 

पूर्व में बताया जा चुँका है कि भोजन परिश्रम के बाद करना चाहिए और अपनी अवस्था के अनुरूप श्रम के हिसाब से करना चाहिए।
अखाद्य और मादक पदार्थो को सर्वदा त्याग देने पर रोगों से बचा जा सकता है। विद्वानों का मत है कि बीमार होकर औषधि और संयम बरतने के बजाये यदि पहले ही संयम से काम लिया जाये तो रोग आ ही नहीं सकते।

(2) युक्ति युक्त उपवास 

उपवास का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है दुखों से छुटकारा दिलाने में। साधारणतया उपवास का अर्थ होता है। 
शारीरिक संयम तथा मानसिक सत चिन्तन द्व्रारा भगवान की गुण लीला और कीर्तन आदि में अपने को तल्लीन रखने के लिये ही प्रयोग में लाया जाता है। 
आम तौर पर उपवास शब्द का प्रयोग कुछ न खाने या सुष्म मात्रा में खास प्रकार का (फल दूध आदि) भोजन लेते हुए भी किया जाता है।

जिसका उददेश्य शारीरिक स्तर पर सुन्दर स्वास्थ्य लाभ तथा आध्यात्मिक स्तर पर भगवान की कृपा और कभी न चुकने वाले सुख की प्राप्ति ही होता है। 

अतः सन्त महात्माओं ने अपने दीर्घ कालीन मनन चिन्तन और तप तथा स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त अनुभव के आधार पर मानव जाति को नाना प्रकार के क्लेशों से उबरने हेतु युक्ति युक्त उपवास का साधन बताया है।

संसार में जितने भी बड़े बड़े सम्प्रदाय है सब में किसी न किसी रूप में उपवास का विधान है बल्कि उपवास के साथ खास प्रलोभन जैसे धन, वैभव, यश, कीर्ति और सब प्रकार के सुख की प्राप्ति आदि भी जोड़ दिये गये हैं।

जिससे मनुष्य उपवास अवश्य करें और स्वस्थ बने रहें। हर साल रमजान के महीनें में पूरे एक महीनें मुस्लिम रोज़े की शक्ल में उपवास करते है। सबसे अधिक और कठिन उपवास जैनियों में होते है।

हिन्दुओं में हर महीने ही, दिन (रवि सोम मंगल गुरुवार आदि)तिथि (तीज चौथ अष्टमी एकादशी प्रदोष पूर्णिमा अमावस्या आदि) पर व्रत उपवास तो चलते ही रहते है। 

पर साल में दो बार ऋतु परिवर्तन काल के 9 दिन की अवधि के दो नवरात्र पर्व (एक वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु के आरम्भ में शारदीय नवरात्र तथा दूसरे जाड़ों के बाद गर्मी की शुरुआत के समय चैत्र के नवरात्र) विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इन व्रत उपवासों के फलस्वरूप हमारा पेट भी साफ हो जाता है और शरीर रोग रहित हो जाता है परन्तु उपवास रखने का रूप बदल जाने के कारण इतना लाभ नहीं मिलता जितना मिलना चाहिए।

लोग उपवास में दूध, दूध की मिठाई, आलू, शकरकन्द फल, मेवे की खीर आदि लेते है और इस प्रकार पेट खाली न रहने के कारण शरीर की सफाई नहीं हो पाती।

वास्तव में उपवास की विधि यह है कि नवरात्र पर बिल्कुल कुछ न खाया जाए। थोड़ा थोड़ा जल आवश्यकता अनुसार लिया जा सकता है।

जल में नींबू का रस व एक दो चम्मच शहद भी लें सकते है जिनसे एकदम ऐसा उपवास न सध सके वे कुछ दिन खाली सब्जी खाकर रहें।
फिर कोई कच्चा पक्का फल जैसे अमरुद, टमाटर, खीरा, ककड़ी, आम इत्यादि। इसके बाद कुछ दिन सब्जियों के सूप या फलों के रस पर रहा जाए। जब अभ्यास हो जाए तो फिर जल शहद और नींबू पर रहा जाए।

भारत तो योगियों का देश विशव भर में प्रसिद्ध हे जहां बड़े बड़े योगी पर्वतों की कंदराओं में दीर्घकालीन समाधि लगाते रहते है।

जिसमें कुछ भी तो खाने पीने का पोर्शन नहीं उठता। जैन सम्प्रदाय के लोग तो एक महीने तक का उपवास कर लेते है।
इससे सिद्ध होता है कि शक्ति सीधी परमात्मा से मिलती है और भोजन शरीर का निर्माण अथवा सिर्फ टूट फूट की मरम्मत का काम करता है।

(3) विवेक पूर्ण सेवा

इसे पंच स्तरीय साधन की बीच की सीढ़ी की संज्ञा दी जा सकती है जो हमें सफलता की और लें जाने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इन्द्रियों को थकावट से बचाने और शरीर को रोगो से बचाने के विषय में पीछे बताया जा चुका है अब जरा मन की अशान्तिको लें।
यह भी एक मानसिक रोगी ही है और मेरा विशवास है कि अशान्ति केवल हमारे स्वास्थ्य भरे क्रिया कलापों का समुचित दंड है। 
अपने पैदा होने के समय से ही हम जिस समाज से अपनी आवश्यक्ताओं की पूर्ति का शुभारम्भ करते है उसकी सेवा की ओर भी क्या हमारा ध्यान जाता है ? 
यदि भली भाती विचार करें तो यह पता चलेगा कि जिस भोजन और वस्त्र के बिना हमारा गुजारा नहीं उसे बनाने और जुटाने में बहुत सारे लोगों का श्रम लगता है। 
जहां जिन स्कूल कॉलेजों में हम पढ़े लिखे है उनके निर्माता और सम्यक व्यवस्था में कई शिक्षा प्रेमी सज्जनों का श्रम व धन लगा होगा।
अपना जीवन गुजारने के लिए धन भी हमको समाज से ही मिलता है परन्तु हम है कि समाज सेवा के नाम पर समाज को अंगूठा ही दिखाये रहते है।
हम न तो समाज के नाम पर और न भगवान के नाम पर ही कुछ खर्च करने को राज़ी होते है। 
जैसे शरीर में मल इकट्ठा होने पर रोग अवश्यम्भावी है उसी प्रकार घर में अधिक धन एकत्र होना भी खतरे और दुश्चिन्ता की पहचान है। इसीलिए किसी कवि ने कितना सुन्दर भाव व्यक्त किया है इस दोहे में —

पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम। 

दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम।।

अतः अपनी जीवन नैया को डूबने से बचाने के लिये, उसमें तेज़ी से भरते जा रहे धन रूपी जल को जल्दी जल्दी उलीचते जाने में ही हमारी सुरक्षा व भलाई निहित है। 
हमारे धर्म शास्त्रों में अपनी कमाई का दशमांश निकालने और उसे समाज सेवा में खर्च करने का विधान है। इस्लाम में जकात इसलिए निकालने को लिखा है और ईसाई धर्म में भी दान और सेवा पर बड़ा बल दिया गया है। 
परन्तु आज इस और से मानव का ध्यान हट गया है। हम लोग सुख पाना तो चाहते है परन्तु किसी को सुख देना नहीं चाहते इसीलिए हमेशा सुख से वंचित रहते है। किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है —

चार वेद छह शास्त्र में, बात मिली है दोय।

सुख दीन्हे सुख होत है, दुख दीन्हे दुख होय।।

अतः सुख और शान्ति के लिये यह जरूरी हे कि हम मिल बांट कर खाये और अपने व्यक्यिगत स्वार्थ का परित्याग करते हुए समाज सेवा में रूचि पैदा करें। जऱा विचारिये।
अगर हम अपनी आमदनी का दसवां भाग भोजन का चौथाई भाग और समय का 1 घंटा समाज सेवा में लगाने लगे तो धन में और भोजन में आसक्ति समाप्त हो जाती है और चिन्ता जड़ मूल से चली जाती है। 
यह मेरे कई मित्रों का निजी अनुभव है। सुख बाटने से ही मनुष्य सुखी हो सकता है यही ध्रुव सत्य है। हमें अपने को सरिता के समान उदार बनाना चाहिए।

(4) विधिवत ध्यान 

पंच स्तरीय साधना का चतुर्थ सीढ़ी है विधिवत ध्यान। महर्षि पतंजलि ने “योगशिचत्त वृत्ति निरोधः” यानि चित्तवृत्तियो के निरोध को ही योग की संज्ञा दी है। 
जिसके अभ्यास से मन को विमल(मलरहित) करके ध्यान द्वारा समाधि की अवस्था तक पहुंचा जा सकता है। यह मल शारीरिक और मानसिक दो स्तरों वाला होता है।
शरीर और इन्द्रियों में मल होने पर नींद आ जाती है तथा मन में मल होने से वह एकाग्र नहीं हो पाता, इधर उधर भागता फिरता है। 
इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि संतुलित आहार, युक्ति युक्त उपवास और विवेक पूर्ण सेवा द्वारा शरीर इन्द्रियों और मन को मल रहित किया जाए। 
प्रातः काल उठकर दैनिक नित्य कर्मो से निवृत्त होकर स्नान करके एकांत शान्त स्थान में थोड़ी ऊंची जगह या तखत पर या चटाई बिछाकर कमलासन, सिद्धासन अथवा सुखासन में से किसी एक ऐसे आसन से बैठना चाहिए। 
जिस पर बिना कष्ट के ज्यादा समय तक बैठा जा सके। थोड़े दिनों के अभ्यास से यह हो जायगा साधना के से आसपास का वातावरण शान्त होना चाहिये। 
भगवान के किसी नाम या रूप अथवा दोनों पर मन को एकाग्र करना चाहिए। इसी एकाग्रता की अवस्था के बाद की स्थति ही समाधि की वह अवस्था होती है। 
जब ध्यान करने वाला और जिस पर ध्यान लगाया जाता है दोनों लुप्त हो जाते है। जिसका आनन्द गूंगे के गुड़ की तरह केवल अनुभवगम्य है। 
वाणी और शब्दों द्वारा उसे व्यक्त कर पाना सम्भव ही नहीं है। यह साधन दीर्घ काल तक निरन्तर कठिन अभ्यास द्वारा ही सध पाता है।

(5) प्रभु अर्पित 

पंचम और अन्तिम स्वतन्त्र स्तर साधना प्रभु के प्रति सर्व भावेन आत्म समर्पण है। जो लोग श्रीमद्भ्गवद गीता पढ़ते सुनते है उन्हें मालूम है। 
कि गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मोह से मुक्त होकर कर्तव्य पालन करने और अनासक्त कर्म करने का उपदेश दिया तथा कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञान योग के मार्ग से आत्म कल्याण करने तथा ब्रह्मा में लीन होने का सन्मार्ग बताया। 
सब कुछ प्रभु अर्पण करके इस जीवन लीला को एक अभिनय मानकर ईशवर की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानकर जो जीवन जीता है। 
अपने कर्त्वयों का विधिवत्त पालन करता है वही दुख से बचा रह पाता है। जैसे कीचड़ में पैदा होने वाला कमल पानी में ही फलता फूलता है और सदैव पानी में ही रहता है। 
फिर भी उस पर पानी की एक बूंद भी ठहरती नहीं और वह पानी से अलिषत रहता है इसी तरह हमें भी संसार सागर में रहते हुए, अपने कर्तव्य करते हुए सब कुछ प्रभु का समझते हुए ही इस जीवन का निर्वाह करना चाहिए तभी हम दुखों से बच सकेंगे।

आपने इस आर्टिकल को पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद करते है | कृपया अपनी राये नीचे कमेंट सेक्शन में सूचित करने की कृपा करें | 😊😊

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