मनोवृत्ति परिवर्तनशील होती है।अतः बदल भी सकती है और बदलती भी है। मनोवृत्ति बदलने में संगति और वातावरण का बहुत हाथ होता है। यह परिवर्तन स्वेच्छा से किसी आकर्षण के कारण भी हो सकता है और मजबूरन किसी दबाव के कारण भी हो सकता है।संगति के प्रभाव से मनोवृत्ति में जो परिवर्तन होते है वे स्वेच्छा से और किसी न किसी प्रकार के आकर्षण के प्रभाव से होते है। संगति का धीरे धीरे हमारे अन्तरमन पर प्रभाव पड़ता है और बार बार प्रभाव पड़ने से हम एक आकर्षण का अनुभव करने लगते है।
मनोवृत्ति में बदलाव (परिवर्तन)
अब सोचने वाली बात यह है कि ऐसे आकर्षण के प्रभाव में दो ही प्रकार से आया जा सकता है। एक तो यह कि हमारी मनोवृत्ति दुर्बल हो और आसानी से हर किसी के प्रभाव में आ जाने वाली हो। दूसरा प्रकार यह है कि हमारे सुप्त (सोये हुए) पुराने संस्कारो में ऐसे संस्कार दबे पड़े हो जो उस आकर्षण के अनुकूल हो तो भी उन सोये हुए संस्कारों के जाग जाने से हमारी मनोवृत्ति बदल जाएगी। हम उस आकर्षण से आकर्षित होकर अपनी मनोवृत्ति बदलने को राजी हो जाएंगे।यही वजह है कि अच्छी संगति से अच्छा और बुरी संगति से बुरा प्रभाव पड़ने से प्रायः मनोवृत्तियां बदल जाया करती है।
मनोवृत्ति बदलने का दूसरा कारण वातावरण का दबाव, परिस्थिति जन्य मजबूरी या किसी जबरदस्त लोभ का होना होता है। जो भी हो और जिस कारण से भी हो, मनोवृत्ति में अच्छा या बुरा परिवर्तन हो जाता है या होता रहता है।अब विचार करने वाली बात यह है कि कैसी मनोवृत्ति हमारे लिए शुभ है और कैसी अशुभ। यह शुभ और अशुभ का झगड़ा भी बड़ा बेढंग है। जो बात आप शुभ मानते है उसे दूसरा अशुभ मानता है। जिसे दूसरा अशुभ मानता है उसे आप शुभ मानते है। यह मत विरोध सदा से रहता आया है और रहता रहेगा। हमे इस चक्कर में उलझनें की कोई आवश्यकता नहीं है।
अन्तरात्मा की आवाज
एक छोटी सी तरकीब से हम इस चक्कर में उलझने से बच सकते है।बिना किसी पक्षपात के यदि हम शुभ अशुभ का निर्णय करना चाहें तो हमे आत्मा की आवाज को सुनना होगा। मन की आवाज से अलग एक आवाज और उठती है हमारे अंदर से, जिसे अन्तरात्मा की आवाज कहा जाता है। यह आवाज कमजोर पड़ सकती है, दबाई जा सकती है इसे अनसुना किया जा सकता है पर इस आवाज को मिटाया नहीं जा सकता।खत्म नहीं किया जा सकता पापी से पापी के अन्तरमन से भी यह आवाज उठती है, यह अलग बात है कि वह पापी अपने अन्तरमन की आवाज को अनसुना कर दे, दबा दे और मनमानी करता रहे लेकिन यह बात तयशुदा है कि पाप करते समय पापी का अन्तरमन यह कहता अवश्य है कि यह काम ठीक नहीं।घोर पापी व्यक्ति भी यह जानता है कि वह पाप कर रहा है, फिर भी करता है और छिपा कर करता है।
हमे समझना चाहिए। यह हो सकता है कि बार बार अन्तरमन की आवाज को अनसुनी करने, दबाने और उसके विपरीत करने से अन्तरमन की आवाज कमजोर पड़ जाये, इतनी कमजोर कि सुनाई भी न दे। ऐसी स्थिति में यह कहा जाएगा कि ऐसे व्यक्ति की आत्मा सो गई है। मल, विशेप और आवरण ने आत्मा को इस प्रकार ढांक दिया है कि आत्मा का स्वरूप खो गया है। आत्मा की कोई पहचान ही नहीं रह गई। वरना हम जब भी कोई काम करने को होते है तब उस काम को करने, न करने के प्रति अन्तरमन से आवाज जरूर आती है।
जिस काम को करने में भय, संदेह और लज्जा का अनुभव अन्तरमन में होता हो वह काम अशुभ है, पाप है और न करने योग्य है, यह पाप की सरलतम परिभाषा है। इसी प्रकार जिस कार्य को करने में, आनन्द उत्साह, प्रीति और निर्भयता का अनुभव अन्तरात्मा में होता हो वह काम शुभ है, करने योग्य है यह शुभ कर्म की सरलतम परिभाषा है। दुसरो का हित करना शुभ है अहित करना अशुभ है। दुसरो की आत्मा को अपनी जैसी समझना शुभ है और दुसरो को कष्ट पहुँचाना अशुभ है।
बुरे काम को करने में भी, शंका व लज्जा का अनुभव अवश्य होता है वरना सारे पाप कर्म छुप कर नहीं किए जाते।चोर तो छुपकर चोरी करते ही है, डाकू भी पुलिस और समाज से मुंह छिपाए फिरते है। इसलिए हम जो भी काम करे वह सन्देह और लज्जा वाला न हो किसी को अकारण बिना दोष के कष्ट देने वाला न हो, उस काम को करने में आनन्द, उत्साह, निर्भयता और परस्पर प्रीति का अनुभव होता हो इसका ख्याल रखना चाहिए यही संक्षिप्त रूप से शुभ की परिभाषा होगी। जो मनुष्य इस प्रकार की मनोवृत्ति रखकर व्यवहार करेगा वही दुःख से बच सकेगा।
आपने इस आर्टिकल को पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद करते है | कृपया अपनी राये नीचे कमेंट सेक्शन में सूचित करने की कृपा करें | 😊😊