भगवान का प्रसाद (Grace of God)
मै जब छोटी थी तब मेरे मन में भगवान के प्रति बहुत से सवाल होते थे।उनमे से एक सवाल ये भी था की हमे पूजा के बाद प्रसाद क्यों मिलता है।
मुझे बचपन से ही बहुत इच्छा थी की में जब भगवान से मिलूँगी तो अपने इन सवालों के उनसे जवाब मांगूगी।में अपनी दादी से बोलती थी की दादी मुझे भगवान जी से मिलना है वो कैसे दीखते है वो कहा रहते है।
पर दादी बोलती थी की भगवान हर जगह है ये पूरी सृष्टि ही उनकी बनाई है वो पूरी सृष्टि में विराजमान है।कुछ भी उनसे छुपा नहीं है।हम जो भी कार्य करते है वो सब जानते है।
मेरी भगवान में आस्था बचपन से ही है।क्योंकि मेने अपने बचपन से ही अपनी मम्मी को सुबह व शाम हमेशा पूजा करते देखा है।उनकी लाइफ में कितनी भी परेशानियां आयी पर उन्होने भगवान पर आस्था रखना नहीं छोड़ा।
उन्होंने बचपन से ही हमे सिखाया है की जीवन में कितनी भी मुश्किलें क्यों न आजाये पर तुम भगवान पर हमेशा भरोसा रखना चाहे तुम किसी भी रूप में उसे पुजो।
क्योकि जिस तरह एक बच्चे के लिए उसके माता पिता उसका बुरा कभी नहीं चाहते वो उससे बहुत प्यार करते है पर कभी कभी भले के लिए अपने बच्चे को गलती करने पर डाट भी लगाते है और फिर उसे क्षमा भी कर देते है।
उसी तरह से भगवान भी हमे बहुत प्यार करते है।वो भी कभी कभी हमारी भलाई के लिए हमारी गलतियों पर हमे डाट लगाते है और क्षमा भी कर देते है।
प्रसाद बहुत ही कीमती और महत्वपूर्ण शब्द है।अंग्रेजी में इसका पर्यायवाची शब्द है (Grace) प्रसाद का तात्पर्य होता है जो बिना मांगे मिले।
आपने देखा होगा की भगवान का प्रसाद माँगा नहीं जाता बल्कि प्रसाद बाटने वाला स्वयं ही हाथ बढ़ाकर आपको प्रसाद देता है।
भगवान जो देता है वो प्रसाद ही होता है।इसलिए भगवान के नाम पर बाटे जाने वाले पदार्थ का नाम प्रसाद रखा गया है।भगवान की कृपा को प्रसाद (Grace of God) कहा जाता है और भक्त भगवान के प्रसाद का ही अभिलाषी होता है।
भक्त कभी भिखारी नहीं हो सकता इसलिए वह भगवान से कभी कुछ मांगना नहीं चाहता बल्कि जो कुछ भगवान से मिला है, मिल रहा है, और बिना मांगे मिलता जाने वाला है उसके प्रति अहोभाव व क्रतज्ञ भाव से भरा रहता है।
जिसे ईश्वर की करुणा पर बहुत श्रद्धा होती है उसे इस बात पर भी दृढ़ आस्था होती है की प्रभु कृपालु और दयानिधान है तो व कृपा करेगा ही, कर भी रहा है तो कृपा की मांग क्या करना।
तो वह कुछ भी नहीं मांगता और जो भी मिलता है उसे प्रसाद मानकर सहज ही ग्रहण कर लेता है।फिर फूल मिले तो फूल, कांटे मिले तो कांटे, जो प्रभु की मर्जी।भक्त के लिए सब प्रसाद ही होता है।
एक राजा की कहानी है जो मेने बचपन में सुनी थी।की एक राजा को अपने एक सेवक से बहुत स्नेह था।वह सेवक स्वामिभक्त था और अन्य सेवको से पुराना था।
एक बार राजा ने बैग में एक फल तोड़कर काटा और बड़े प्यार से एक कली सेवक को दे दी।सेवक ने कली खाकर कहा -स्वामी एक काली और।राजा ने एक काली और दे दी तो उसे खाकर सेवक फिर बोला -स्वामी एक कली और।
राजा ने कौतुहल के साथ एक कली और दे दी की शायद सेवक को फल बहुत स्वादिष्ट लगा है।सेवक मांगता गया और राजा स्नेहवश देता गया पर जब आखरी कली बची तो राजा बोला -क्यों रे !सब तू ही खा जायेगा क्या ?अब नहीं दूंगा।
यह कली में खाऊंगा।यह सुनकर सेवक ने झटपट वह कली भी लेनी चाही पर तब तक राजा उस कली को मुँह में रख चूका था।वह फल इतना ज्यादा कड़वा था की राजा का चेहरा बिगड़ गया और उसे तुरंत कली को थूकना पड़ा।
जिसे सेवक इतनी देर से मुस्कुराता हुआ खा रहा था।राजा हैरान होकर बोला- बाप रे ! इतना कड़वा फल और मुस्कुराता हुआ खता रहा, मैग मांग कर खता रहा, बताया क्यों नहीं ?
सेवक बोला- में नहीं चाहता था की मेरे मालिक को ऐसा कड़वा फल खाना पड़े इसलिए मांग मांग कर खता गया।रही बात आपको बताने की तो मालिक ! जिन हाथो से हमेशा इतना कुछ मिला सुख मिला, मीठे फल मिले उनसे कड़वा फल भी मिले तो शिकायत क्या करना।